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17) वो गांव की एक बारात ( यादों के झरोके से )



शीर्षक = वो गांव की एक बारात



एक बार फिर  आप सब के सामने हाजिर हूँ, अपने चुलबुले बचपन की यादों को लेकर, आप सब भी सोच रहे होंगे की ये केसा लड़का है  की सिर्फ अपने बचपन के ही बारे में बताये जा रहा है , मानो इसके पास गुज़रे इन सालों में कुछ ऐसा नहीं हुआ जिन्हे ये बताना चाहे , हर बार अपने बचपन की यादें साँझा कर रहा है 


तो मैं बताता चलू बचपन से ज्यादा सुनेहरा दौर कोई था ही नहीं, ऐसा नहीं है की इन बीते सालों में कुछ ऐसा नहीं गुज़रा जिनकी यादें आप सब के साथ साँझा की जाए लेकिन बचपन और उससे जुडी यादों को ताज़ा करने का इस प्रतियोगिता से अच्छा मौका नहीं मिलेगा इसलिए इस प्रतियोगिता के माध्यम से एक बार फिर अपने उस गुज़रे सालों को जीने का मौका मिल रहा है, दिमाग़ में धुंधली पड़ी उन यादों पर वक़्त की धुल को हटाने का एक अवसर मिला है  इसलिए  उन्हे ही हटाने की कोशिश कर रहा हूँ, परेशान मत होइए  मैं अपने उन गुज़रे लम्हों का भी वर्णन करूंगा जिन्हे मैंने हाल ही में अपनी यादों के संदूक में रखा है , लेकिन सबसे पहले  मैं पुरानी यादों का ताज़ा करना चाहता हूँ ताकि मुझे पता चल सके की मैंने कभी उन लम्हों को जिया भी था  जो अब याद बन चुके है 



तो आइये चलते है , शहर में पला बड़ा होने की वजह से मुझे हमेशा से ही गांव ज्यादा प्यारा लगा , जानते हुए भी की गांव वालों का जीवन शहर वालों की तुलना में अधिक संघर्ष भरा होता है  उन्हे चूल्हे में आग जलाने से लेकर अपने आप को शिक्षित करने तक संघर्षो का सामना करना पड़ता है 


क्यूंकि हमारे साथ बहुत से दूर दराज से आये हुए बच्चों ने पढ़ाई की है  जो या तो 10 - 10 किलोमीटर साइकिल चला कर पढ़ने आते थे  या फिर अपने घर से दूर रहकर पढ़ाई को अंजाम देते थे 


सच में गांव में रहने वालों का संघर्ष सरहानीय है , जो चूल्हे पर रोटी पकाने के लिए पहले जंगलों जंगलो जाकर लकड़िया इकट्ठे करते है बाद में कही उनके चूल्हे पर रोटी पकती है 

मेरे गांव के भ्रमण का शोक गांव की शादियों में जाकर कभी कभार पूरा हो जाता, जब कभी किसी के यहाँ से कोई दावत आती तब मैं ही जाता, मुझे शहर की दावतो से ज्यादा गांव की दावत ज्यादा अच्छी लगती थी और है , क्यूंकि जो सम्मान गांव वाले घर आये मेहमान को देते है उनकी आव भगत मैं लग जाते है उस तरीके का सम्मान अब शहरों की दावतो में देखने को नहीं मिलता सिर्फ दिखावा होता है ,सजावट का और रंग बिरंगे खानो का जिनके जरिये समाज में अपना स्टेटस ऊँचा करने की साजिश होती है


फिर चाहे वो खाना पेट में जाए या फिर कूड़े दान में उन्हे इससे कुछ नहीं लेना देना, बस चार लोगो में तारीफ हो जाए जिंदगी भर की कमाई यू इस तरह दिखावे में चली जाए कोई फर्क नहीं पड़ता आज कल के इंसान को बस दुसरे से बराबरी हो जाए और बस दिखावा हो जाए, असली मेहमान नावाज़ी क्या होती है  उन्हे इस बात से कुछ नहीं लेना देना, इज़्ज़त से अगर दाल रोटी भी खिला दी जाए तो वो भी एक मेहमान के लिए  मुर्ग मुस्लल्म से कही बेहतर है और अगर बिना मेहमान नावाज़ी के, बिन अतिथि को भगवान जाने उसे 56 भोग भी खिला दिए जाए तो वो व्यर्थ ही है मेरी नज़र में


हाँ तो हम कहा थे, गांव की बारात में जैसा की शीर्षक है , बात है  2012 की हमारे घर के बिलकुल सामने रहने वाले एक घर में शादी थी  उनके बेटे की, जिसकी बारात हमारे शहर और जिले में पड़ने वाले किसी गांव में जा रही थी 


बारात संग चलने की दावत हमारे घर भी आयी थी, क्यूंकि सामने का पड़ोस था  इस तरह आँख तो नहीं फेर सकते थे  और सच कहु तो मैं तो इंतज़ार में ही था  की कब हमारी पड़ोसन बुलावा लेकर आये  और मैं गांव की बारात में शामिल हो सकूँ


जून का महीना था, जिसके चलते गर्मी भी अधिक थी पर मुझे तो बेहद ख़ुशी थी क्यूंकि मेरे साथ मेरे और भी पड़ोस में रहने वाले दोस्त जा रहे थे 

मैं तो सुबह से ही तैयार था  अब बस दूल्हा मिया का इंतज़ार था  की वो कब दूल्हा बन कर घर से निकले और आगे का सफऱ तैयार हो


धीरे धीरे इंतज़ार की घड़िया ख़त्म हुयी और दूल्हा मिया गले में हार टांगे घर से बाहर निकले और उनके पीछे ढ़ोल बजाने वाले "दूलहे का सेहरा सुहाना लगता है , दुल्हन का तो दिल दीवाना लगता है  " वाला गाना गा रहे थे 


थोड़ी दूर पर बस खड़ी थी , एक आदमियों की और दूसरी महिलाओ की सब बाराती जाकर उसमे बैठ गए  और हमारा सफऱ शुरू हो गया 


रास्तो में पड़ रहे गड्डे और उनमे झूलती हमारी बस  हमें बता रही थी की बस किसी गांव की सड़क पर आ चुकी है, अब तो गांव में भी पक्की सड़क हो गयी है , गावों का भी नवीनी करण चल रहा है 

करीब एक से दो घंटे उस झूलती बस में गुज़ारने के बाद आखिर कार हमारी बस अपने मक़ाम पर जा पहुंची 


बस से उतरते ही हमने देखा की चारों और सिवाय लेहलाहते खेतों के कुछ नज़र नहीं आ रहा था, वो गांव कुछ ज्यादा ही पिछड़ा गांव प्रतीत हो रहा था, जहाँ घर कम और खेत ज्यादा नज़र आ रहे थे और एक घर में घुसने के बाद आप पूरे गांव के घरों की सेर कर के आ सकते थे, क्यूंकि उन घरों में कोई दीवारे ही नहीं थी  सिर्फ ना जाने बडी बडी इख जैसा कुछ लगा हुआ था , जिन घरों में दीवार थी भी वो भी इतनी छोटी की कोई भी उसे फलांग कर जा सकता था 


सच में वहाँ रहने वाले लोग बहुत बहादुर थे , जो इस तरह बड़े बड़े घर और चारों और खेत खलियान में रहते थे 


खेर हम सब वहाँ पहुचे जहाँ बारात के लिए इंतेज़ाम किया गया था, वो शहर जैसे होटलों जैसा सजा हुआ नहीं था वहाँ चारों और कल कत्ते ( एक तरह की सजावट जो की रंग बिरंगे कागज के टुकड़ो को काट कर रस्सी और चिपका कर की जाती है " की लड़िया लटक रही थी 

एक जगह थोड़ा बहुत दहेज़ सजा हुआ था  और दूसरी तरफ खाने का इंतेज़ाम था

जिस घर में खाने का इंतेज़ाम था वो घर इतना बड़ा था की शहर जितने 10 घर उसके अंदर बन जाते

जैसे ही बारात वहाँ पहुंची एक आवाज़ हमारे कानो में आयी जो की सबको बडी अजीब सी लगी , बारात के पहुंचते ही बाहर लगे माइक में एलान हुआ " गांव के जितने भी लड़के है  खाना खिलाने आ जाए, बारात आ चुकी है  "

ये बात सुनने के बाद सब लोग एक दुसरे के चेहरे को देख रहे थे , और सोच रहे थे  की ये क्या बात है  की गांव के जितने भी लड़के  है  सब खाना खिलाने आ जाए, इतना एका तो शायद शहर वालों में कभी नहीं हो सकता  की वो इस तरह एलान कराये की शहर के जितने लड़के है सब खाना खिलाने आ जाए, पहली बात तो कोई भी इस तरह के बुलाने पर नहीं जाएगा

लेकिन हमने देखा की धीरे धीरे गांव के लड़के वहाँ आन पहुचे  और खाना खिलाने में मदद करने लगे 

क्यूंकि गांव में आज भी नीचे बिठाल कर ही खाना खिलाने का रिवाज़ है फिर चाहे वो किसी भी धर्म का क्यू ना हो, शहरों की तरह सेल्फ सेर्विस और खड़े होकर खाने का अपमान करके नहीं खिलाया जाता है 


गांव की शादियों की एक बात अजीब होती है, हमारे सूबे में पड़ने वाले गाँवो की, बाकी का मुझे नहीं पता  और मुस्लिम समुदाय से ताल्लुक रखने वाले गांव की शादियों में वहाँ मीठा खाने से पहले दिया जाता है , जो की थोड़ा अजीब लगता है  वो बारात का मुँह मीठा कराना चाहते है  या फिर इसके पीछे कोई और बात होगी मुझे मालूम नहीं


सबसे पहले मीठा दिया गया  जिसमे नुक़्तिये थी जो की ताजी बनी हुयी थी , उसके बाद खाना परोसा गया  जो की बहुत ही स्वादिस्ट था  कही कही गांव की शादी में कड़ी चावल  का इंतेज़ाम होता है  जो की बहुत ही उम्दा तरीके से बनाये जाते है , जिन्हे खाने के बाद हर कोई ऊँगली भी चाट जाता है 

आखिर कार खाना खाने के बाद निकाह हुआ फिर दूल्हा का नाश्ता और फिर आखिर कार वो घड़ी आ गयी जो सबकी आँखे नम कर देती है  विदाई की घड़ी 

गांव से चल कर वो लड़की विदा होकर हमारे शहर आन बसी और हम भी वापस बस से अपने घर आ गए उस गांव की शादी का अनुभव लेकर जो की बहुत अच्छा था  और एक अब अच्छी यादों में शामिल है 



ऐसी ही एक और याद आप सब ले साथ साँझा करने के लिए जल्द हाजिर हूँगा तब तक के लिए अलविदा


यादों के झरोखे से 

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1 Comments

Sachin dev

14-Dec-2022 04:02 PM

Superb 👌👌

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